तुम देखती अगर मैं किसी नज़र तो हसीन होता
पाके तेरी आँखों का रंग कुछ तो रंगीन होता
तुम किसी से मुझ तक आती डरती हो शायद
काश कि मैं तेरी जानिब बहती हुई ज़मीन होता
तुमने खु़शी दी मुझे इतनी मैं सब कुछ भूल गया
मीठा-मीठा-सा ये पानी ज़रा-सा तो नमकीन होता
रात, चाँद और मैं तीनों थे मगर तन्हा थे
तुम होती साथ मेरे हमें क़िस्मत पे यक़ीन होता
गुल थे, रंग थे, फ़िज़ा थी, बहार थी, सबा थी
होता यूँ मेरे चमन में तुम-सा कोई नाज़नीन होता
यह कशिशे – मुहब्बत बेखु़द किए रहती है
‘नज़र’ कभी तेरे हुस्न से तो तरीन होता
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’