वक़्ते-सितम ग़ालिब होना था
मुझको तेरा तालिब होना था
किसी ने थामा हाथ तेरे बाद नहीं
यूँ भी मुझे इस जानिब होना था
इक आग धधकती है सीने में
सो हुआ जो मुनासिब होना था
दिल ने खा़ना-ख़राबी ऐसी की
किसी को भी न ताज़िब होना था
तुम गये मुड़ के देखा भी नहीं
और क्या बुरा साहिब होना था
मौसमे-याद ने तड़पा दिया मुझे
फ़स्ले-गुल को क़ासिद होना था
नसीब में है इन्तिज़ार ‘नज़र’
तुम्हें भी इसी जानिब होना था
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’