कोंपलें हर शाख़ बनी पत्तियाँ अब
दामने-ग़म में लौट गयी ख़िज़ाँ अब
देखो उस रात पर शिगाफ़ आने लग गये
असरकार दिल तक हुई फ़ुग़ाँ अब
नहाके चाँदनी में रातरानी महक उठी
साँस लेना सुकूँ से हो गयी आसाँ अब
जैसे लख़्ते-जिगर सीने में रहता है
यूँ सुनी जाती है दिल की ज़ुबाँ अब
‘वफ़ा’ प्यार में मर जाओगे यह न कहो
ज़ीस्त मिलती है एक बारी यहाँ अब
शायिर: विनय प्रजापति ‘वफ़ा’
लेखन वर्ष: २००३