रोऊँ इस तरह कि पत्थर को तोड़ दूँ
करूँ कुछ ऐसा कि शरर को तोड़ दूँ
उसके शीशा-ए-दिल में जान हो तो कहो
सूखी आँखों से गौहर को तोड़ दूँ
आईना जो देखता है मुझको मेरी तरह
कहो अगर नज़र को नज़र से तोड़ दूँ
दुश्मनी न निभाओ मुझसे मेरे खु़दा
कि जो हो सो हो अपने सर को तोड़ दूँ
उसने अगर तोड़ दिया है मेरे दिल को
मैं किसलिए खु़दा के घर को तोड़ दूँ
यूँ तो दम है बहुत मगर मैं खु़दा नहीं
वो कहे तो आधी रात सहर को तोड़ दूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’