मंज़िल के पहुँचने से वरे क़ाफ़िला दे छोड़
ऐ दिल समझ इन हमसफ़रों का गिला दे छोड़*
सवाब करता है किसके लिए तू ‘नज़र’ जमा
तू करना दोस्तों और ग़ैरों के साथ भला दे छोड़
साथ रहना सीख ले तू बहारे-चमन के साथ
तू इस दिल की ये वीरानो-बेज़ार ख़ला दे छोड़
क्या मिलता है तुझको राह की गर्द के साथ
मुझे जन्नत मिले जो इश्क़ की बला दे छोड़
न कर तू शिक़वा किसी से न कर तू शिक़ायत
तू शबो-रोज़ का हर नया मरहला दे छोड़
दुआ कर दुआ रोज़ मस्जिदो-नमाज़ में तू
तुझे खु़दा से माँगना ‘नज़रे’-मुब्तिला दे छोड़
* इस ग़ज़ल का मतला शायर मिर्ज़ा रफ़ी ‘सौदा’ (वर्ष: 1711-1781) है|
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’