मैं जलता हूँ उस आग से जिस आग को जलाना है
दिखता है वही राज़ निहाँ जिसका भेद खुलवाना है
यह न पूछिए कि क्या उस से दिल का लगाना है
यूँ समझ लीजिए शीशे का पत्थर से टकराना है
अगर नहीं सुनता है तो न सुने सदाए-इश्क़
मगर फिर भी बारहा मुझे इक़रार दोहराना है
हूक जो दिल से लब तलक लहू-लुहान आती है
उसे दिखाकर हमें पत्थर को बारहा रुलाना है
लीजिए अश्क में लख़्ते-दिल ‘नज़र’ आने लगे
अब बाक़ी क्या रह गया जो कि उससे फ़रमाना है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३