मुझे इक तड़प सुबहो-शाम रहती है
कि उदासी के साये तले शाम रहती है
कब तुमसे जुदा होकर मैंने खु़शी अपनायी
खु़शी मेरे लबों पर बेनाम रहती है
खा़मोशी तो मेरी अब आदत बन गयी
मेरी आँखों में अब यह मुदाम रहती है
तेरी नज़र के बारे में अब क्या कहूँ मैं
कि ग़ैरों की तरह ये सलाम कहती है
जो कहते थे सो करता था मैं तुम्हारे लिए
दुनिया आज भी मुझे तेरा ग़ुलाम कहती है
‘नज़र’ को बेदिल न कहना मजबूर है वो
उसकी खा़मोशी अपना कलाम कहती है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’