नींद गहरी है रात ठहरी है
आज ख़ाबों की बग़िया हरी है
चाँद खिला है पेड़ पर
पेड़ के नीचे एक लड़की है
वह मेरी जाने-जाँ है
वह मेरी मोहब्बत का जहाँ है
ढूँढ़ने चला मैं उसको
आख़िर मेरी दुनिया कहाँ है
रोज़-रोज़ गली-गली
हर चौराहे मैं धूल बनके उड़ा
कभी अपनों से मिला
अजनबी और ग़ैरों से जुड़ा
तेरे बिना दिल तन्हा है
तू चाँद है, ख़ुश्बू है, सुबह है
यह ज़िन्दगी अधूरी है
बहती एक आँधी की तरह है
रोज़ तन्हा बैठता है चाँद जहाँ
वह मेरे घर की एक खिड़की है
उसे फूलों के बाग़ों में देखा है
तितलियों-सा उड़ते देखा है
वह हँसती है फूल खिलते हैं
उसे फूलों में खिलते देखा है
मैं सारा दिन ख़्यालों में उड़ता हूँ
वह कोई रूबीना है कोई परी है…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १७ अप्रैल २००३
2 replies on “नींद गहरी है रात ठहरी है”
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