चाहत रखते हैं तुमसे ख़ता जानते हो
किसलिए ग़ैरों को तुम अपना मानते हो
है ग़ैर का मसला ग़ैर के साथ सुलझाओ
क्यों बीच में मुझको बेवजह सानते हो
इस ख़ाकसार को तुमने मिलाया ख़ाक में
फिर मेरी तलाश में ख़ाक छानते हो
किससे दूँ मिसाल तेरी कौन है तुम-सा
कर गुज़रते हो वही जो जी में ठानते हो
अपने हुस्न का मुझको न रोब दिखाओ
दो दिन का रोब ये उसपे सीना तानते हो
नज़र लग जायेगी तुम्हें ‘नज़र’ की
फ़रियाद क्यों आहो-फ़ुगाँ की माँगते हो
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४