रहते हैं हम जिन ख़ाबों में
उन ख़ाबों का एहसास तुम हो
रह जायें जो साँसें तन में बाक़ी
उन साँसों की ख़ाहिश तुम हो
मीठे-मीठे-से दर्द पर तुम
यह सर्द-सी आँच बुझने दो
उड़ती-उड़ती-सी प्यास को
दो जिस्मों में सुलगने दो
रहते हैं हम जिन ख़ाबों में
उन ख़ाबों का एहसास तुम हो
उन्स जो उठता है उठने दो
आग जो लगती है जलने दो
पलकों के नीचे जो छिपा है
हमने उसे अभी-अभी देखा है
हाथों को हाथों में उलझा दो
होंठों से दो ओंठों पर लिख दो
रह जायें जो साँसें तन में बाक़ी
उन साँसों की ख़ाहिश तुम हो
रहते हैं हम जिन ख़ाबों में
उन ख़ाबों का एहसास तुम हो
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९
One reply on “रहते हैं हम जिन ख़ाबों में”
bahut khub,saanson se hi zindagi chalti hai,aur khwaish se hote hai arman pure,nice.