सौंधी हुई एक खु़शबू
मेरी आँखों में आकर सो गयी है
कभी भर जो आती है आँख
सारा मंज़र महका देती है…
तुम्हारे बिन लम्हों की गलियों में
सदियों का फ़ासला तय कर रहा हूँ
भटक रहा हूँ
तुम्हारा नाम तुम्हारा निशाँ पाने के लिए…
जाने कब मिलें हम-तुम
जाने कब ख़त्म हो यह तलाश
मैं अंजान मुसाफ़िरों की तरह
सड़कों के साथ चल रहा हूँ
इनमें से कोई तो तुम तक पहुँचती होगी…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४