मैं बैठा हूँ संगे-दरे-आस्ताँ पर सुबह से शाम तक
तुम आज फिर न गुज़रे क्यों सुबह से शाम तक
चमन में भँवरे फिरे रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ती रहीं
भरी धूप में कलियाँ महकती रहीं सुबह से शाम तक
बादल आये कभी बरसे कभी नहीं भी, लेकिन तुम नहीं
तेरी ख़ाहिशों में रहा मैं मुब्तिला सुबह से शाम तक
आस बढ़ाये न तोड़े कोई दर्द मेरा बढ़ता ही जा रहा है
सीमाबो-बेक़रार है सीना मेरा सुबह से शाम तक
कोई शाम कैसे महके कोई रंग कैसे चटखे भला आज
है वही आँखों में रेत का समन्दर सुबह से शाम तक
‘नज़र’ की तमन्ना ख़ाहिश मोहब्बत चाहत तुम हो
वो तुम्हीं को ढूँढ़ता फिरता है सुबह से शाम तक
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४