ता-हदे-नज़र क्यों बियाबान नज़र आता है
चाँद को क्या शिकवा क्यों सरे-सहर आता है
क्यों बढ़े आते हैं तन्हाई के मेले मेरे दिल तक
रोज़े-मशहर ही आये वह’ अगर आता है
शाम के साये में मेरी ज़िन्दगी चराग़ के मानिन्द है
आये इस जान को चैन अगर बुझकर आता है
वफ़ाओ-उल्फ़त से जो मेरा ताअल्लुक़ था सो तुमसे था
कि आँख में दिल का टुकड़ा लहू बनकर आता है
याद न दिलाये कोई वो तुमसे लम्हा फ़िराक़ का’ आज
मेरी ज़ुबान पे आह के लफ़्ज़ों का ज़हर आता है
चाँद से कहा न आये उस तरह से जैसे वो आये था
मगर हर शाम उसी तरह छत पर आता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४