तेरे चेहरे ने शिकन लफ़्ज़ों में बयाँ की होगी
कोई यूँ ही तो ख़ुद इतना फ़ुर्त नहीं होता है
लम्हा-लम्हा ख़ला-सी आँखों में क्या बदलता है?
कोई चेहरा आता है आँखों में आकर फिसलता है
बड़ा अजनबी जाना हमको जो सामान लौटा रहे हो
क्या रु-ब-रू होने वालों से कोई अजनबी होता है
मुतमइन-सा हूँ खु़द से, तेरा भी कसूर क्या है?
इस जहाँ में इक मेरे साथ ही ऐसा होता आया है
ज़बाँ से चखा है, जबसे तेरा नाम, हाँ तुम्हारा!
मुझे मिसरी की मिठास वह लज़्ज़त याद आयी नहीं
मेरी ज़ुबाँ का लहज़ा हर वक़्त खु़शनुमा रहता है
लोग कहते हैं मैं बदल गया हूँ, तुमने बदल दिया है
बेरब्त मेरी तक़दीर थी उसने तुमसे राब्ता पा लिया है
तेरे क़रीब होने से यह धुँध आँखों में भरा रहता है
तुम जब मेरे पास आकर बैठती हो लोग ताने कसते हैं
तुम्हें यह पता नहीं या तुम भी उन्हीं में शामिल हो?
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२