तुम किसी बहाने घर हमारे आते
गुल हज़ार रंग के खिल जाते
मैं तुम्हें देखता जी भरके एक टुक
यह कुछ खा़ब तो पूरे हो जाते
जिगर में खू़न का रंग तेरे लबों-सा है
कभी तुम मेरी आँखों में देख जाते
तुम्हें पाने में हज़ारों अड़चने तय हैं
तुम कुछ तो राह दिखला जाते
मेरा कोई साथ नहीं देता किसी बात में
तुम साथ हो मेरे कभी कह जाते
ऊपर से सभी ने देखा टटोला नहीं
वरना कुछ दोस्त मेरे हो जाते
तुमको चाहा तो ग़लत क्या है इसमें
जो था तुम मुझको बतला जाते
मैं टूट रहा हूँ किसी खण्डहर की तरह
इक दफ़ा तो आकर देख जाते
तुम पूछते मेरे दर्दों के बारे में कभी
कुछ तो मेरे दुःख-दर्द बँटा जाते
मेरी दुआ खु़दा तक पहुँची तो है शायद
मगर तुम इसका यक़ीन करा जाते
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’