उन खूबसूरत आँखों को मैं क्या हर्फ़ दूँ
बाइसे-गुफ़्तार के लिए मैं क्या तर्क़ दूँ
क्या हुआ अजनबी से आश्ना बन गयीं आँखें
आश्ना को हमनशीं से मैं क्या फ़र्क़ दूँ
छुप रही हैं बड़े लिहाज से पलकों के तले
उन छुपती हुई आँखों को मैं क्या हर्फ़ दूँ
हयात हैं वो आँखें उनमें ज़िन्दगी बसती है
बाखु़दा फ़लक से उनको मैं क्या फ़र्क़ दूँ
तीर उन आँखों के दिल से गुज़र जाते हैं
ब-वक़्ते-मर्ग उनको मैं क्या तर्क़ दूँ
‘नज़र’ से दिल-फ़रेबी कर रहीं है वो आँखें
उनके फ़रेब को आशिक़ी से मैं क्या फ़र्क़ दूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’