उसकी आँखों ने मुझे पहचाना तो
मगर एक डर से
अजनबी-सा डर…
चाहता तो रुक कर बात कर लेता
मगर मैं –
बेवज़ह किसी को परेशान नहीं करता
जो नहीं चाहता,
उससे बात क्यों करूँ…
अजनबी हूँ आज उससे
कभी तो ज़्यादा नहीं चाहा उससे –
उसने ही दबा दिया है मुझे,
अपने ही पैरों तले…
खु़द अपना ही बोझ कैसे उठाऊँ?
क्या कभी वो मुझसे बात करेगी?
दिल ने क्यों चाहा कि आज वहाँ चलूँ?
वह वहाँ क्यों खड़ी थी?
क्या उसका वहाँ होना
और मेरा वहाँ जाना एक संजोग था
एक अजनबी संजोग
एक अजीब-सा संजोग
धुँधलके जो छँट गये थे
फिर कुछ गहरे लगने लगे हैं
मैं कुछ ग़लत कर रहा हूँ?
या वह?
उसकी आँखों ने मुझे पहचाना तो
मगर एक डर से…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००५