मेरा दिल पत्थर था तुझ पर दीवाना हुआ
दीवानगी में लग के ख़ुद से अंजाना हुआ
तेरी सूरत में जो देखा न देखा था आज तक
लाले पड़े जान के ईमान का भी जुर्माना हुआ
हाए किस अदा के साथ देखा तुमने मुझे
बिस्मिल तेरा तीरे-नज़र का निशाना हुआ
मैंने तुम्हें देखा तुम मुझे देखकर मुस्कुराये
बस इसलिए मशहूर यह अफ़साना हुआ
भड़कीं दोनों जानिब इश्क़ की चिंगारियाँ
ख़ुतूत के ज़रिए अब इश्क़ फ़रमाना हुआ
वो हम से हम उन से रूठते हैं बेवज़ह
अब रोज़ उनसे अपना रूठाना मनाना हुआ
शराब की तरह होता है यह इश्क़ भी
बढ़िया उतना ही हुआ जितना कि पुराना हुआ
दर-ब-दर भटकता था किस जुस्त-जू में
कैसा मक़ाम है यह तेरे दिल में ठिकाना हुआ
जल रहा है शबो-रोज़ एक आरज़ू लिए
तेरे दिल की शमा पे मेरा दिल परवाना हुआ
तौबा की थी इक रोज़ मोहब्बत से मगर
तेरी लगन में मेरा यह दिल आशिक़ाना हुआ
बेतरह बेमक़सद जी रहा था मैं ज़िन्दगी
ख़ुश हूँ आज चलो मरने का तो बहाना हुआ
और ज़िन्दगी में क्या कीजिए महज़ इश्क़
इसलिए तुमसे अपने दिल का लगाना हुआ
बेवफ़ा नहीं हूँ और न ही करता हूँ झूठे वादे
इक बार किया वादा मर के भी निभाना हुआ
तुमने चुरा लिया मेरा दिल सबके सामने
अबकि बार मुझको तेरा चैन चुराना हुआ
अब दिल के सभी दाग़ दिखा देंगे हम तुमको
कि तेरी पैमानाए-निगाह को छलकाना हुआ
बड़े ढीठ हो कि सुनते नहीं मेरा हाले-दिल
कि तेरा हाथ पकड़ के मुझको तो सुनाना हुआ
अजनबी हो आज मगर होगे आश्ना भी
किसी तरह तो मुझे तेरा दिल धड़काना हुआ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४