वह इश्क़ था या फिर धोख़ा कोई
वह चाँद था या फिर चेहरा कोई
गर इश्क़ न था तो उतरा क्यों नहीं
क्यों याद आया बार-बार रहके वही
कौन-सा मरासिम बाँध लिया था
जिसकी तस्लीम बाक़ी है आज भी
शफ़क़ ही क्यूँ ढूँढ़ता हूँ मैं
उफ़क़ से भी नाता था मेरा कोई
इक आँधी की तरह आया था वह
मेरे ज़हन से जो न उतरा अभी
ख़्वाबों में मिला सिर्फ़ दो बार
कि मुझसे इश्क़ज़दा था वह भी
कभी टूटे सितारे से कभी चाँद से
हमने माँगा था दुआ में उसे ही
शबे-जश्न थी मेरे घर पर
उसको बुलाकर लाया था कोई
नज़रें मिलाता था कभी चुराता था
उसे ख़ुद पर यक़ीं था कि नहीं
मेरे दिल से चली थी इक सदा
क्या उसे वह सुन पाया है कभी
क्या उम्मीद होगी जाँ से मुझे
लेकर इसे दफ़्न कर दे कोई
या तो मैं वहम में जी रहा हूँ
या वो मुझको दे रहा है धोख़ा कोई
तफ़सील क्या दूँ मैं इश्क़ की
इक बला है दोस्त बचाये कोई
निशाने-रंगे-दर्द हैं आँखों में
उतरा है जाँ-नशीं चेहरा कोई
नाम तुम्हारा शीना है आज जाना
काश तेरी तस्वीर भी दिला दे कोई
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२