यादों का सागर
गहरा है
उसमें डूब जाऊँ तो
वक़्त का हर लम्हा
ठहरा है
कोई काँटा-सा है
जो लग गया है
इक फाँस-सा है
और फँस गया है
कोई आवाज़
हमें देता नहीं
क्या वो मकान
वीराँ हो गया है
क्या शाखों पर
गुल खिलते नहीं
या हवाओं का
रुख़ बदल गया है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२
One reply on “यादों का सागर”
just superb…