ये जो कोरा काग़ज़ है
मेरी ज़िन्दगी-सा है
कभी इस किताब में
कभी तेरे खा़ब में
दिखायी देता है…
जिस तरह से
लिख दे कोई इस पर
जिस तरह से
रंग दे कोई साँझ-सवेर
ऐसे ही मिलता है हमें
ज़िन्दगी से फीका ज़हर
हवाओं में खु़शबुएँ
साँसों में ज़िन्दगी
घुल जायेगी
कहीं न कहीं हमें
वो हसीन ज़िन्दगी
मिल जायेगी
बीते लम्हे,
इंतज़ार का ये पल
कोई लिखता नहीं
ढूँढ़ता हूँ जिस
आइनें में खु़द को
मैं उसमें दिखता नहीं
जाने क्या ख़ता है मेरी
कि मुझसे वक़्त का
हर पल छूट रहा है,
मैं चाहता तो हूँ मगर
कैसे थामूँ उस रिश्ते को
जो टूट रहा है
काँच-सा है साफ़-साफ़
जिसके पार दिखता है
एक टूटे हुए शख़्स को
देखा है मैंने ‘नज़र’
जो वही पुराने टुकड़ों को लिखता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००