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मेरी नज़्म

किस राह को चल रहे थे

किस राह को चल रहे थे
किस राह को हम चल दिये,
उनसे प्यार लिए
हम चले इक नये सफ़र पर,
लुटा दिया सारा जो कुछ था
उनकी इक नज़र पर,
कुछ कर गुज़रने की तमन्ना लिए
अकेले हर मंज़िल तक चल रहे,
जाने किसका ख़्याल लिये…

दूरियाँ बहुत हैं लम्बे हैं रास्ते
मगर हम चले किसी के वास्ते
जिस डगर पर भी रुके
वहाँ कुछ अपने बन गये
किस राह को हम चल रहे थे
किस राह को हम चल दिये…

इक बात थी दिल में
सबको प्यार देने की
और हमेशा हम बाँटते रहे,
उड़ते बादलों की तरह
हम चले हर डगर, हर नगर
जाने क्यों छा गये, बेग़ाने शहर पर

क्या चाहें वह हमसे हम समझ गये
कोई मिले इस सफ़र में
तारीख़ों के गुज़रते मंज़र में
यह क्या हुआ हम कहाँ रुक गये
फिर सभी हमसे मिल गये
किस राह को चल रहे थे
किस राह पर हम रुक गये…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९

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मेरी नज़्म

इक तरफ़ वह इक तरफ़ हम

इक तरफ़ वह इक तरफ़ हम
बीच में यह फ़ासले
इश्क़ की डोर से
हमने जो बाँधे बन्धन
क्या ख़बर उन पर गींठ लगी भी

इश्क़ के दायरे में खड़े
मगर वह साथ नहीं
पल-पल बन रहा है कल
क्या ख़बर वह हमसे मिलेंगे भी

इक तरफ़ वह इक तरफ़ हम
बीच में यह फ़ासले
इश्क़ का असर है इधर
दिल हमारा गुमसुम है
क्या ख़बर उन पर असर हुआ भी

इश्क़ में न मिले मौत
और हम ज़िन्दा भी नहीं
आती-जाती है वह रोज़
क्या ख़बर वह फ़िरोज़ मिलेगी भी

इक तरफ़ वह इक तरफ़ हम
बीच में यह फ़ासले
इश्क़ में निभाते हैं हम
रात का सुबह से जो बन्धन
क्या ख़बर वह यह हालात जानते भी

इश्क़ का है यह दस्तूर
क्या वह यह समझते भी
कुछ नहीं है इस बात का हल
क्या ख़बर वह जो हल है मिलेगा भी

इक तरफ़ वह इक तरफ़ हम
बीच में यह फ़ासले…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९

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मेरी नज़्म

वह कहाँ चले गये

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
थोड़ा-सा और क़रीब हमारे
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे

बड़ी रहमत की थी
जो आये किसी बहाने से
उनके चेहरे पर थी
दबी-सी मुस्कुराहट
आँखें कह रही थीं
अनकहे अफ़साने

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
कुछ न कहकर भी
सब कुछ कह गये
तोहफ़े में हमें
अपनी यादें दे गये

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
दिल ने चाहा था
कुछ देर और ठहरें
और कुछ देखें नज़ारें
जो सजाये थे मैंने

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
पहला करम था उनका
जब नज़रें मिलायी थीं
नज़रें मिलाकर
निगाहें झुकायी थीं

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
फ़र्श पर जो निशाँ बने
वह  तो मिट गये
मिटे कब वह निशाँ
जो दिल पर रह गये

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
दिल चाहता था
वह पास बैठें हमारे
दीदार करें हम
खींचे उनकी तस्वीरें

वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९

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मेरी नज़्म

तेरी यादों के साये तले

तेरी यादों के साये तले
जाने हम-
कितनी दूर तक चले
क्या ख़बर कब…
थकते क़दमों की शाम ढले
जाने कब पतझड़ को
महकता सावन मिले
तेरी यादों की शाम
है नीली-नीली
सागर तट की रेत
है गीली-गीली

तेरी यादों के साये तले
जाने हम-
कितनी दूर तक चले
क्या ख़बर किसलिए…
बुझी राख में चिन्गारी जले
जाने क्यों तेरे बिना…
चलते हैं यहाँ सिलसिले
इक डोर बाँधी थी हमने
वह टूटी नहीं है,
दिल को लगी थी जो लगन,
वह छूटी नहीं है…

तेरी यादों के साये तले
जाने हम-
कितनी दूर तक चले
क्या ख़बर कैसे क्या हुआ
जो तुम रुसवा हो गये…
हम बिल्कुल अकेले,
तन्हा रह गये तुम जो गये
जब कोई आहट आती है
तेरी ही याद जगाती है
तन्हा कर-करके हमें
पल-पल तोड़ जाती है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९

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मेरी नज़्म

सफ़र बहुत तवील है

बहारों का मौसम
शाख़ों पर खिलने लगा है
मज़िलों की बेताबी का
चाँद अब दिखने लगा है

सफ़र बहुत तवील है
और लम्हें मुख़्तसर…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००-२००१