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मेरी नज़्म

कोई नक़ाब ही क्यों ना हो…

दुनिया में अपनी हसरतों का मारा हुआ
शायद इक मैं ही हूँ
वरना तो उदासियों की भीड़ में
हर चेहरा खु़श ही नज़र आता है
चाहे वो खु़शी दर्द के चेहरे पर
कोई नक़ाब ही क्यों ना हो…
चलो खु़श तो है झूठे ही सही

इस झूठी खु़शी के बीच
उसे कोई न कोई इक पल खु़शी का
ज़ुरूर मिल ही जाता होगा
खु़शनसीब होते हैं ऐसे लोग
जिन्हें खु़शी का इक पल भी नसीब होता है

मुझे तो बस चाहत के बदले में
यह हसरतें मिलीं हैं
शायद इक रोज़ यह सीने में दफ़्न हो जायें
वरना मुझे तो दफ़्न होना ही है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

कोई आगोश कोई साहिल मिले…

ज़िन्दगी
उम्र के दरिया में बहते हुए
मँझधार-मँझधार जाने कहाँ
बहती जा रही है…
शायद अपनी हसरतों में मुब्तिला है
और कुछ नहीं उसकी दुनिया में,
बस कुछ चंद हसरतें हैं
हसरतें जाने कब पूरी हों
कब ज़िन्दगी को धीमी मँझधार वाला
कोई आगोश कोई साहिल मिले…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

मेरे बारे में…

एक कहानी…
जिसमें कोई किरदार नहीं,
एक बादल जिसमें
नमी की एक बूँद नहीं,

एक समन्दर…
जिसमें सब कुछ है,
जिसके लिए कुछ नहीं,
और ऐसा ही सब कुछ…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

शायद कोई तस्वीर ही…

एक उदास आरज़ू
रेत के मैदान में
दौड़ते-दौड़ते थक गयी
उसे कोई हमदर्द
कोई साया नहीं मिला
मेरा दिल भी एक रेगिस्तान है

एक आरज़ू जो उदास है
कबसे भटक रही है
कोई निशाँ कोई नाम पाने के लिए

मगर रेगिस्तान की आँधियों के बीच
क्या भला कोई कभी कुछ ढ़ूँढ़ पाया है
जो इस उदास आरज़ू को मिलेगा

नासमझ है, समझती ही नहीं
न जाने किसलिए गर्द के ग़ुबार में
इक भँवर के साथ भटक रही है

शायद कोई नाम मिले
शायद कोई निशाँ मिले
शायद कोई तस्वीर ही…
जिससे यह जुस्त-जू ख़त्म हो


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

ख़ाब…

सूरज सारा दिन महकता रहा
चाँद शबभर सुलगता रहा

सितारों की कलियाँ जगमगाती रहीं
दिन डूबा तो रात बिखरने लगी

अपने अरमानों के आगोश में बैठा
मैं ख़ाबीदा तुझे देख रहा हूँ…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’