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मेरी नज़्म

ज़मीन में बची थी महज़ तपिश

न सुबह आयी न शाम आयी
मैं दोपहर की तेज़ धूप में भटकता रहा
सहराँ की रेत-सी यह ज़िन्दगी तपती रही
हर ख़्याल हर ख़ाब में तेरा ही अक्स था

सूरज़ ग़ुरूर था बहुत
छाँव का कोई शज़र दूर तक दिखा ही नहीं
बंजर सूखी ज़मीन पर
पानी के सब निशाँ सूख चुके थे

ज़मीन में बची थी महज़ तपिश
ज़िन्दगी के साथ-साथ जिस्म भी तपता रहा
न सुबह आयी न शाम आयी
मैं दोपहर की तेज़ धूप में भटकता रहा


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

पत्र

जबसे मैंने तुमको देखा है
यक़ीन जानो सारी रात नींद नहीं आती मुझे
जब साँस लेता हूँ मैं
तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से जिस्म महक उठता है
मुँदी हुई पलकों में आठों पहर
मैं तुम्हें ही देखता हूँ
तुम्हारे संदली बदन की मासूम अदाएँ
मुझे दीवाना कर चुकी हैं
तुम्हारी आँखों की चंचलता, शरारत…
मुझे बेक़रार और बेताब करती है
तुम्हारे रेशमी बालों के स्पर्श को
मेरे रुख़सार बहुत आतुर हैं
मैं तुम्हारे होंटों की नर्मी को
अपने होंटों पर महसूस करना चाहता हूँ
पूरे चाँद के जैसी हो तुम
मैं रात-दिन जिसके ख़ाब देखता हूँ
मानी यह कि
पहली नज़र में ही मुझे तुमसे प्यार हो गया है


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

या यह फ़रेब है…

तुम चाहती हो मुझे
या यह फ़रेब है
दिल की धड़कन
तुझे महसूस करती है

आँख तुझे देखती है
एक टुक अपलक
तेरे चेहरे की उमंग
मेरे दिल की तरंग है

जब भी तुम्हें उसके साथ देखता हूँ
जी जल जाता है
आँख रो उठती है
और मन भीग जाता है

तुम्हें अकेले देखता हूँ
तो लगता है
तुम्हारे इशारे बुलाते हैं
तुम मेरा ही इंतज़ार करती हो

तुम चाहती हो मुझे
या यह फ़रेब है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

आरज़ू तुम पे मर मिटने की

आरज़ू तुम पे मर मिटने की
आज तक दिल में ज़िन्दा है
मगर तुम हो कि तुम्हें
मेरे प्यार की क़दर ही नहीं

एक दिया जल रहा है शबो-रोज़
बे-तरह और बेहविस …
दर्द भरे हुए, ज़ख़्म फूँकते हुए
तुम्हें उसकी गर्मी का एहसास ही नहीं

तेरी तलाश में भटक रहा हूँ
खुष्क… सूखी तेज़ हवाओं में
मुझे आँखें बंद करनी ही पड़ती हैं
दर्द की धूल आँखों से बहती ही नहीं

आरज़ू तुम पे मर मिटने की
आज तक दिल में ज़िन्दा है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

मेरी ज़िन्दगी में भीड़ बहुत थी

मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे
भीड़ बहुत थी
दूर तलक चादर थी धूप की
न शज़र न दरख़्त
दूर तक कोई साया न था

जिसकी ख़्वाहिश थी मुझे
एक वही न था
मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे…

साँस जैसे हलक़ से नीचे उतरती न थी
दिल जैसे धड़कता न था
सूखी हुई आँखों में रेत का दरया था

तस्वीरें बनाता था मैं
आँधियाँ जिनको मिटाती थी
था जिनसे मैं वाबस्ता
मगर वो मुझसे न थीं

मेरी ज़िन्दगी में भीड़ बहुत थी
लोग बहुत थे…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’