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मेरी नज़्म

रातभर…

रातभर…
न आँख खोली गयी
न मूँदी गयी,
बोझल पलकों में
सारी रात जागी आँखें,
किनारों तक नींद आयी
और…
किनारों से खा़ब लौट गये,
मैं…
जाने किसके इंतिज़ार में
बैठा रहा…
रातभर…

कुछ न कुछ सोचता रहा
कभी तुम्हारे बारे में
कभी खु़द के…
सारी रात यूँ ही काटी मैंने…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

मगर उसका एहसास नहीं…

हवा में इक ताज़ा खु़शबू है
कुछ पुरानी यादों की,
आज सारी रात जागूँगा
सारी रात याद करूँगा तुम्हें
इस उम्मीद पर कि शायद
हिचकी के वक़्त कुछ नामों के बीच
मेरा भूला हुआ नाम
तुम्हारी ज़ुबाँ से तुम्हारे लबों पर आ जाए
शायद इसी बहाने
तुम मुझे याद कर लो
शायद यूँ कभी याद किया न हो…
तुमने मुझे
अगर नहीं किया तो क्यों
मैं तुम्हारी साँसों का कभी एक क़तरा…
रह चुका हूँ
साँस जिससे जिस्म में जान है
हाँ वही हूँ मैं
जिसकी तुम्हें ज़रूरत तो है
मगर उसका एहसास नहीं…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

कोई नक़ाब ही क्यों ना हो…

दुनिया में अपनी हसरतों का मारा हुआ
शायद इक मैं ही हूँ
वरना तो उदासियों की भीड़ में
हर चेहरा खु़श ही नज़र आता है
चाहे वो खु़शी दर्द के चेहरे पर
कोई नक़ाब ही क्यों ना हो…
चलो खु़श तो है झूठे ही सही

इस झूठी खु़शी के बीच
उसे कोई न कोई इक पल खु़शी का
ज़ुरूर मिल ही जाता होगा
खु़शनसीब होते हैं ऐसे लोग
जिन्हें खु़शी का इक पल भी नसीब होता है

मुझे तो बस चाहत के बदले में
यह हसरतें मिलीं हैं
शायद इक रोज़ यह सीने में दफ़्न हो जायें
वरना मुझे तो दफ़्न होना ही है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

कोई आगोश कोई साहिल मिले…

ज़िन्दगी
उम्र के दरिया में बहते हुए
मँझधार-मँझधार जाने कहाँ
बहती जा रही है…
शायद अपनी हसरतों में मुब्तिला है
और कुछ नहीं उसकी दुनिया में,
बस कुछ चंद हसरतें हैं
हसरतें जाने कब पूरी हों
कब ज़िन्दगी को धीमी मँझधार वाला
कोई आगोश कोई साहिल मिले…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

मेरे बारे में…

एक कहानी…
जिसमें कोई किरदार नहीं,
एक बादल जिसमें
नमी की एक बूँद नहीं,

एक समन्दर…
जिसमें सब कुछ है,
जिसके लिए कुछ नहीं,
और ऐसा ही सब कुछ…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’